*राजभाषा की आत्मकथा*



..मैं खुश भी हूँ,उदास भी।अपने मायके में अपनी उपेक्षा से उदास होना स्वाभाविक तो है न..।परंतु खुश रहना,नकारात्मक विचारों को अपने से दूर रखना मैंने अपनी मां से सीखा है।जी हां ! मैं देवभाषा संस्कृत की बेटी हिंदी हूँ।

हजारों वर्ष पूर्व अपने जन्म के आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक की मेरी यात्रा तमाम उतार - चढ़ाव की साक्षी रही है।प्राकृत,पालि, अपभ्रंश से होते हुए मेरी यात्रा मध्य युग के भक्ति काल की स्वर्णिम समय की भी साक्षी रही है।जब क्रूर एवं आततायी आक्रमणकारियों की क्रूरता से भारतीय जनमानस अपने आप को निराश एवं हताश महसूस कर रहा था,उस अंधेरे समय में दक्षिण के एक संत रामानंद ने भक्ति आंदोलन की शुरुआत कर हिंदी भाषा को विभिन्न बोलियों के सहयोग से दक्षिण से उत्तर को एकता में पिरोने वाली भाषा के रूप में मुझे प्रतिष्ठित किया।

विदेशी आक्रांताओं के अत्याचारों से कराहती भारत भूमि को मैंने उत्तर से दक्षिण तथा पूरब से पश्चिम तक जोड़ने का कार्य किया।अगर मध्य काल में मेरे सुयोग्य पुत्रों यथा सूर,तुलसी,कबीर ने तो वहीं आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी,मैथलीशरण गुप्त,रामधारी सिंह दिनकर,निराला,पंत आदि ने मुझे जन सरोकार के साथ साथ साहित्यिक भाषा के रूप में भी स्थापित किया

आधुनिक काल में अंग्रेजी दासता से मुक्ति के लिए राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में मेरे अहिंदी भाषी पुत्रों जैसे महात्मा गाँधी,बाल गंगाधर तिलक,गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर,सुभाष चंद्र बोस ,महादेव गोविन्द रानाडे,इत्यादि ने मुझे सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया।भारत जैसे बहुभाषी देश में मुझे सम्पूर्ण भारत वर्ष की प्रतिनिधि होने का सौभाग्य संविधान सभा ने भी दिया।
स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा द्वारा मुझे राजभाषा का दर्ज़ा दिया गया।इसके   बाद   संविधान   में   अनुच्छेद   343   से   351   तक   राजभाषा   के   सम्बन्ध   में   व्यवस्था   की   गयी।   इसकी   स्मृति   को   ताजा   रखने   के   लिये   14   सितम्बर   का   दिन   प्रतिवर्ष   हिन्दी   दिवस   के   रूप   में   मनाया   जाता   है।   केंद्रीय   स्तर   पर   भारत   में   दूसरी   सह   राजभाषा   अंग्रेजी   है।
धारा   343(1)  के   अनुसार   भारतीय   संघ   की   राजभाषा   हिन्दी   एवं   लिपि   देवनागरी   है।

कुछ मुट्ठी भर लोग आज भी एक राष्ट्रभाषा के तौर पर प्रतिष्ठित होने की राह में बाधा बने हुए हैं।वे वही लोग है जो अंग्रेजों से राजनीतिक आजादी मिलने के बाद भी , मानसिक गुलाम बने होने में अपने को अभिजात्य वर्ग का समझते हैं।

फिर भी मुझे संतोष के साथ यह विश्वास भी है कि दुनिया में अंग्रेजी के बाद सबसे बड़ी संख्या में बोली और समझी जाने वाली भाषा के रूप में मुझे न सिर्फ भारत की राष्ट्र भाषा अपितु संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा में भी शामिल होने का अवसर प्राप्त होगा।इस उम्मीद को बल तब मिला जब भारतीय राजनीति के अजातशत्रु तत्कालीन विदेश मंत्री स्व. श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 4 अक्टूबर 1977 में संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा को हिन्दी में पहली बार संबोधित किया था।

हालांकि उसके उपरांत भी कई राजनेताओं द्वारा हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का गंभीर प्रयास हुआ।पर भगीरथ की आवश्यकता आज भी है,जो इस गंगा को वैश्विक पटल पर स्थापित करे।
             
                        ----राघवेश पति त्रिपाठी,शिक्षक एवं स्वतंत्र लेखक,महराजगंज उत्तर प्रदेश

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