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अधूरी चाहत

तमाम चेहरों में  नज़र आए तुम पर अपना चेहरा लिए  कभी न आए तुम कभी चिट्ठी कभी फूलों की महक में  पाबंद तुम घर की देहरी के भीतर सुगंध बन नहीं आए तुम तेरा गुस्सा,तेरी उदासियां और ये जिंदगी की घुटन बन गई ग़ज़ल पर गीत का वो पुरसुकून राग बन नहीं आए तुम अब किससे बयां करूं अपना दर्द -ए -दिल  ' राघव ' जब मेरी ज़िंदगी की पटकथा में नहीं आए तुम              -----राघवेश

रिश्ते

रिश्तों में लीपापोती पसंद नहीं है मुझे अंदर कुछ ,और बाहर कुछ पसंद नहीं है मुझे दिल में शिकायतों का भंवर पर चेहरे पे मीठी मुसकान ऐसे रिश्तों की बाज़ीगरी पसंद नहीं है मुझे वस्तुजगत की चीज़ों की कोई परवाह नहीं पर भावजगत की नीलामी मंज़ूर नहीं मुझे ' स्टेट फॉरवर्ड ' जो बोलते हैं अच्छे लगते हैं पीठ पीछे बात करने वाले पसंद नहीं मुझे पैसों की चालाकी तो एक हद तक ठीक है पर मूल्यों की मक्कारी पसंद नहीं मुझे ऐसे दुश्मन,जो सिर काट लें बहादुर लगते हैं पर हर बात में बात काटने वाले दोस्त पसंद नहीं मुझे किसी के दर्द को महसूस कर के तो रो लेते हैं मगर किसी को रुलाकर,कविता लिखना पसंद नहीं मुझे ।।                            -----राघवेश

*राजभाषा की आत्मकथा*

..मैं खुश भी हूँ,उदास भी।अपने मायके में अपनी उपेक्षा से उदास होना स्वाभाविक तो है न..।परंतु खुश रहना,नकारात्मक विचारों को अपने से दूर रखना मैंने अपनी मां से सीखा है।जी हां ! मैं देवभाषा संस्कृत की बेटी हिंदी हूँ। हजारों वर्ष पूर्व अपने जन्म के आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक की मेरी यात्रा तमाम उतार - चढ़ाव की साक्षी रही है।प्राकृत,पालि, अपभ्रंश से होते हुए मेरी यात्रा मध्य युग के भक्ति काल की स्वर्णिम समय की भी साक्षी रही है।जब क्रूर एवं आततायी आक्रमणकारियों की क्रूरता से भारतीय जनमानस अपने आप को निराश एवं हताश महसूस कर रहा था,उस अंधेरे समय में दक्षिण के एक संत रामानंद ने भक्ति आंदोलन की शुरुआत कर हिंदी भाषा को विभिन्न बोलियों के सहयोग से दक्षिण से उत्तर को एकता में पिरोने वाली भाषा के रूप में मुझे प्रतिष्ठित किया। विदेशी आक्रांताओं के अत्याचारों से कराहती भारत भूमि को मैंने उत्तर से दक्षिण तथा पूरब से पश्चिम तक जोड़ने का कार्य किया।अगर मध्य काल में मेरे सुयोग्य पुत्रों यथा सूर,तुलसी,कबीर ने तो वहीं आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी,मैथलीशरण गुप्त,रामधारी सिंह द...

राजभाषा की पुकार*

जब घुटनों के बल चलता था किस्से,लोरी में पलता था तब तेरी पीठ बैठकर मैं ता ता थैया कहता था तेरे आँचल के छोर से मैं बंधन ममता की गहता था ऐ हिन्द ! की बेटी तुमको मैं अपनी भाषा  कहता था हिन्दू,हिन्दी, हिंदुस्तान की जब जब भी चर्चे होते थे दिल भर आता,सांसे बोझिल कंठों में आहत बोली थी कैसे मैं तुझे पुकारूंगा,सिर्फ राज-भाषा कह के गुहारूँगा ऐ नीति नियंता ! गौर करो अपनी भाषा को न दूर करो अंग्रेजी,उर्दू,अरबी,जर्मन सबका तुम प्रयोग करो पर अपनी भाषा हिन्दी को मातृ -भूमि की बिंदी को सिर्फ औपचारिकता का दे विराम अपने कर्तव्य का न इति श्री करो संविधान के बाहर भी अनुसूची की सूची से ऊपर तुम इसको मातृवत प्रेम करो सिर्फ राजभाषा का सांत्वना दे इसे राष्ट्रभाषा से न महरूम करो                               ---  राघवेश पति त्रिपाठी,शिक्षक एवं स्वतंत्र लेखक ,महराजगंज, उत्तर प्रदेश